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कविता

आराघर की ओर

रतीनाथ योगेश्वर


पड़े हैं हम - सड़कों पर
आँधियों में गिरे हुए पेड़ों की तरह
                          रास्ता रोके हुए
सड़कें दुबकने को हैं
चाय की गुमटियों के पीछे
...चुप चुप... सब कुछ खामोश

आ रहे है
कुछ लोग
बड़े बड़े आरों और कुल्हाड़ों के साथ
जिन्हें देख -
उभरने लगी हैं फुसफुसाहटें
नाली में सड़ते हुए कुत्ते के पेट सा
फूलने को है - मन

दौड़ने लगा है
व्यवस्था का टैक्टर
हमें लादे
आराघर की ओर

पक चुके दिन का फोड़ा
इंतजार कर रहा है...
उस आपरेशन ब्लेड का
जिससे चीरा लगते ही
भलभला कर निकल पड़ेगा
सारा का सारा मवाद

कूद गया / डूब गया
रक्त सरोवर में एक और दिन
रात स्याह लबादे ओढ़े
गुजर रही है आहिस्ता-आहिस्ता...

नसों में फुँफकारने लगी है
खतरनाक सनसनाती बिजली
फिर भी चल रहे हैं हम पर
सुरक्षित चारों तरफ से बंद जूते पहनकर
बेहद चालाक और क्रूर दिमागी लोग

इंतजार ...और बस इंतजार कर
रही है भीतर की बिजली
उनके जूतों के चिरककर फटने का

रेल पटरियों पर -
भाग रही है खिड़कियाँ
भाग रहे हैं गठरी-मुठरी में बँधे हुए
घर-गिरस्ती के सामान...
सूखते गलों के साथ भाग रही हैं -
पानी की खाली बोतलें

एक शहर से दूसरे शहर की ओर
सोए सोए खड़े खड़े बैठे बैठे
भाग रहे हैं, डरे हुए लोग

अँधेरे में कहीं दूर
बहुत पीछे...
छूट गए हैं
गाँव-गिराँव के रास्ते।

 


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